Friday, August 20, 2010

कोसी अंचल के शासक साहित्‍यकार


राजा दुलार सिंह चौधरी द्वारा स्थापित पूर्णिया स्थित बनैली राजवंश में साहित्यिक अभिरुचि निरंतर बनी रही है। बनैलीराज और इसकी दूसरी शाखा श्रीनगर राज--दोनों ही साहित्य-संस्कृति के प्रमुख पोषक-केन्द्र रहे हैं। राजपरिवार के सदस्यों ने जहाँ एक ओर स्वयं साहित्य-रचना कर यश प्राप्त किया, वहीं दूसरी ओर साहित्यकारों को राज्याश्रय देकर भी प्रोत्साहित किया। बनैली और इसकी शाखा श्रीनगर राज परिवारों के ऐसे सदस्यों में राजा वेदानंद सिंह, लीलानंद सिंह, कमलानंद सिंह, कालिकानंद सिंह, पद्मानंद सिंह, कीर्त्‍यानंद सिंह, कृष्णानंद सिंह और कुमार गंगानंद सिंह के नाम प्रमुख हैं।
पूर्णिया जिले के ‘फरकिया स्टेट’ के मालिक श्रोत्रिय मैथिल ब्राह्मण विजयगोविन्द सिंह ने भी स्फुट काव्य रचनाएँ की थीं। उनका जन्मकाल 1807-17 ई. के बीच अनुमानित है। 1857 ई. में अंग्रेजों ने उनकी रियासत से एक करोड़ रुपया कर्ज लिया था। उस समय उनकी रियासत का मैनेजर चार्ल्‍स पामर (Charles Palmer, कलकत्ते से पूर्णिया- आगमन 1911 ई., निधन: 1873 ई.) था। उसकी दगाबाजी के कारण उनकी रियासत नीलाम हो गई और पामर के कब्‍जे में आ गई। पामर की दगाबाजी से उद्वेलित होकर विजयगोविन्द सिंह ने एक कविता बनाई थी, जिसका अंतिम अंश था--‘पामर पामरता दिखलाई।’ इसी कविता में उन्होंने अपने विषय में निम्नांकित पंक्तियाँ लिखी थीं--
जनम भये दारिद्र कुल, पाछे नृपति कहाय।
फिर पाछे दारिद्र भो, विधिगति कही न जाय।।
विजयगोविन्द सिंह की एक पुस्तक 'दिल्लीनामा' का उल्लेख मिलता है, जिसकी हस्तलिखित प्रति राज-पुस्तकालय, दरभंगा में सुरक्षित होने का अनुमान है। यदि यह पुस्तक प्रकाश में लाई जाती है तो हिन्दी साहित्य के इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक दस्तावेज अध्येताओं को उपलब्ध हो सकता है।
राजा वेदानंद सिंह (1776-1851 ई.) एक सुयोग्य शासक, विख्यात मल्ल और कवि थे। नेपाल-युद्ध में ब्रिटिश सरकार की सहायता के नाते उन्हें ‘राजा’ की उपाधि प्राप्त हुई थी। बनैली राज्य की स्थापना और विस्तार का श्रेय उन्हें ही जाता है। हिन्दी में उन्होंने 'वेदानंद विनोद' नामक एक प्रामाणिक वैद्यक ग्रंथ लिखा था। उनके सुपुत्र राजा लीलानंद सिंह (निधन: 1883 ई.) के ज्येष्ठ पुत्र पद्मानंद सिंह (निधन: 1912 ई.) हिन्दी, उर्दू और फारसी में स्फुट काव्य-रचनाएँ किया करते थे। उनकी रचनाएँ प्रायः भक्तिपरक होती थीं।
लीलानंद सिंह के कनिष्ठ पुत्र राजा कीर्त्‍यानंद सिंह (जन्म: 22 सितंबर 1883 ई.; निधन: 19 जनवरी 1938 ई.) बिहार के राजपरिवारों में उच्च शिक्षा प्राप्त प्रथम स्नातक थे। वे एक निपुण ‘मोटरिस्ट’ और वैज्ञानिक विषयों एवं आखेट-विद्या के पूर्ण ज्ञाता थे। फुटबॉल, पोलो, टेनिस और बिलियर्ड के श्रेष्ठ खिलाड़ी होने के साथ-साथ वे एक संगीतज्ञ, आखेट-वीर, दानवीर एवं हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत भाषाओं के अन्यतम विद्वान थे। वे प्रांत की अनेकानेक प्रमुख संस्थाओं एवं समितियों के अध्यक्ष तथा बंगाल विधान-परिषद् एवं बिहार-उड़ीसा विधान परिषद् के अनेक वर्षों तक सदस्य रहे। भोजपुरी गीत ‘बटोहिया’ के अमर गायक एवं कवि रघुवीर नारायण उनके निजी सचिव थे। कीर्त्‍यानंद सिंह ने हिन्दू विश्वविद्यालय को एक लाख रुपए तथा टी.एन.जे. कॉलेज (अब टी.एन.बी. कॉलेज), भागलपुर को पाँच लाख रुपए का दान दिया था। यद्यपि उनकी एकमात्र प्रकाशित पुस्तक 'पूर्णिया: ए शिकारलैण्ड' अंग्रेजी में है, तथापि उन्होंने हिन्दी में भी लेखन कार्य किया था, जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ था। उनकी पुस्तक का हिन्दी अनुवाद डॉ. लक्ष्मीनारायण सुधांशु ने 'गंगा' में प्रकाशित कराया था। वे 1913 ई. में आयोजित चतुर्थ अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के भागलपुर अधिवेशन के स्वागताध्यक्ष तथा 1924 ई. में मुजफ्फरपुर में आयोजित बिहार प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभाध्यक्ष थे। पटना स्थित बिहार-हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन का विशाल भवन उनके ही नाम पर स्थापित है।
राजा वेदानंद सिंह के भतीजे राजा श्रीनंद सिंह के सुपुत्र राजा कमलानंद सिंह (जन्म: 27 मई 1876 ई., निधन: चैत्र शुक्ल षष्ठी, 1967 वि./1910 ई.) यशस्वी शासक और साहित्यकार थे। उनके राज्याश्रित कवियों की संख्या बहुत बड़ी थी। विभिन्न साहित्यिक आयोजनों, पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों के प्रकाशन में आर्थिक सहयोग के अलावा वे लेखकों को उनकी श्रेष्ठ पुस्तकों के लिए व्यक्तिगत रूप से पुरस्कार राशियाँ भी भेंट किया करते थे। स्वनामधन्य हिन्दी कवि और संपादक पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने जून, 1903 ई. की सरस्वती पत्रिका में उनकी जीवनी लिखी थी। पं. श्रीकांत मिश्र द्वारा रचित 15 सर्गों में सुगठित संस्कृत काव्य 'साम्बकमलानन्द-कुलरत्न' में उनके पितृवंश और मातृवंश का वर्णन है। उनकी संपूर्ण उपलब्ध रचनाओं का संकलन 'सरोज रचनावली' के रूप में पुस्तक भंडार, पटना से प्रकाशित है, जिसका संपादन हिन्दी के यशस्वी संपादक आचार्य शिवपूजन सहाय ने किया था।
राजा कमलानंद सिंह का नाम द्विवेदीयुगीन साहित्यकारों में महत्त्वपूर्ण है। वे ब्रजभाषा मैथिली और खड़ी बोली में समान अधिकार से काव्य-रचना करते थे। खड़ी बोली गद्य रचना में भी वे सिद्धहस्त थे। इसके अलावा उन्होंने बाङ्ला और अंग्रेजी रचनाओं के सफल अनुवाद भी प्रस्तुत किए। उनकी काव्य-रचना से प्रभावित होकर तत्कालीन ‘कवि-समाज’ ने उन्हें ‘साहित्य सरोज’ की उपाधि प्रदान की थी। अनेक साहित्यिक पत्रिकाओं के संरक्षक होने के नाते ‘कवि मंडली’ ने उन्हें ‘द्वितीय भोज’ की उपाधि दी। भारत-धर्म-महामंडल (काशी) ने उन्हें ‘कवि-कुलचंद्र’ की उपाधि से अलंकृत किया था। वे हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं 'रसिकमित्र' एवं 'सरस्वती' और मैथिली पत्रिका 'मिथिला मिहिर' के नियमित लेखक थे। उनकी मौलिक कृतियों में 'मिथिला-चंद्रास्त' (1899 ई.) 'श्रीएडवर्डबत्तीसी' (1902 ई.), 'वोट बत्तीसी' (1909 ई.) और 'हा! व्यास शोक-प्रकाश' (1910 ई.) शामिल हैं। बाङ्ला कथाकार बंकिमचंद्र चटर्जी और कवि माइकेल मधुसूदन दत्त की अनेक रचनाओं के हिन्दी अनुवाद भी उन्होंने प्रस्तुत किए, जिनमें 1903 ई. में अनूदित बंकिमचंद्र का प्रसिद्ध उपन्यास 'आनंदमठ' (1906 ई. डायमंड जुबली प्रेस, कानपुर से प्रकाशित) तथा माइकेल मधुसूदन दत्त कृत्त 'वीरांगना-काव्य' (1907 ई. में सरस्वती में काव्यांश प्रकाशित) प्रमुख हैं, जो इन कृतियों के प्रथम हिन्दी अनुवाद हैं।
राजा कमलानंद सिंह के सुपुत्रा कुमार गंगानंद सिंह (जन्म: 24 सितंबर 1898 ई., निधन: 17 जनवरी 1970 ई.) भी हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी और मैथिली भाषाओं के अन्यतम विद्वान और लेखक थे। वे एक प्रतिष्ठित शिक्षाशास्त्री और राजनेता थे। विभिन्न शैक्षिक, साहित्यिक, सामाजिक और राजनीतिक संस्थाओं से वे जीवनपर्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिकाओं में सक्रिय संबद्ध रहे। कलकत्ता विश्वविद्यालय से 1921 ई. में ‘भारतीय इतिहास एवं संस्कृति’ विषय में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर उन्होंने वहीं पुरातत्त्व विभाग में भरहुत-शिलालेखों पर शोध-अनुसंधान का कार्य किया। बाद में रॉयल सोसायटी ऑव ग्रेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड, रॉयल एशियाटिक सोसायटी, बंगाल एशियाटिक सोसायटी, बिहार एंड उड़ीसा रिसर्च सोसायटी आदि संस्थाओं से जुड़कर उन्होंने महत्त्वपूर्ण अनुसंधान कार्य किए। एक राजनेता के रूप में वे अखिल भारतीय हिंदू महासभा और अखिल भारतीय काँग्रेस से संबद्ध रहे। उन्होंने 1923-30 ई. तक भारत की केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा के निर्वाचित सदस्य, 1937-52 ई. तक विधान परिषद में विरोधी पक्ष के उपनेता और नेता, 1957-62 ई. तक बिहार के शिक्षामंत्री, 1964-65 ई. तक बिहार विधान परिषद के अध्यक्ष तथा 1966 ई. से जीवनपर्यंत श्री कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में सक्रिय कार्य किया।
कुमार गंगानंद सिंह की मैथिली, हिन्दी एवं अंग्रेजी में लिखित रचनाएँ--निबंध, कहानी, भाषण, कविता आदि गंगा, अभ्युदय, हिंदूपंच (हिन्दी); मिथिला मिहिर, स्वदेश (मैथिली), इंडियन नेशन (अंग्रेजी) आदि पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होती रहीं। उनकी मैथिली में लिखित रेखाचित्रात्मक उपन्यासिका 'अगिलही' और छह अन्य कहानियाँ डॉ. शैलेन्द्रमोहन झा के संपादन में 'अगिलही ओ अन्यकथा' नाम से पुस्तकाकार प्रकाशित हैं। उनके द्वारा लिखित ‘जीवन-संघर्ष’ शीर्षक एकांकी (स्वदेश, मासिक, 1948 में प्रकाशित) मैथिली के आधुनिक एकांकी साहित्येतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। डॉ. गौरीकांत झा ने पटना विश्वविद्यालय में ‘आधुनिक मैथिली साहित्य मे कुमार गंगानंद सिंहक योगदान’ विषयक शोधप्रबंध प्रस्तुत किया था। साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली की ‘भारतीय साहित्य निर्माता’ शृंखला के अंतर्गत सुरेन्द्र झा ‘सुमन’ द्वारा लिखित मैथिली विनिबंध 'कुमार गंगानंद सिंह' (1991 ई.) भी इनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को उजागर करनेवाली महत्त्वपूर्ण कृति है।

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